Pratap Shodh Pratisthan
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प्रताप शोध प्रतिष्ठान, भूपाल नोबल्स विश्वविद्यालय, उदयपुर
राजस्थान में भारतीय संस्कृति, इतिहास एवं साहित्य की विपुल सम्पदा होने से इस क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान रहा। राजस्थान के शासकों द्वारा विभिन्न आक्रमणकारियों का वीरतापूर्वक सामना किया गया। अतः यहाँ पर पग-पग पर अतुलनीय त्याग, बलिदान और ओज से मण्डित होने के कारण यह क्षेत्र अनेक विषेषताओं से युक्त हैं, ऐसी अमूल्य धरोहर की यथोचित सुरक्षा और प्रमाणित वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करने के उद्देश्य से विद्या प्रचारिणी सभा, भूपाल नोबल्स संस्थान ने सन् 1967 ईस्वी में प्रतिष्ठान की स्थापना की। विगत 50 वर्षो के सुनिश्चित योजनाबद्ध तरीके से कार्य सम्पादन के कारण यह संस्थान राजस्थान ही नहीं देश की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अनुसन्धान संस्थान के रूप में विख्यात हैं तथा इतिहास, साहित्य, संस्कृति एवं कला आदि विषयों में अनुसन्धान के लिए मान्यता प्राप्त शोध केन्द्र है।
राजस्थान सरकार ने प्रतिष्ठान को विशिष्ट स्तर की अनुसन्धान संस्था मानकर 60 प्रतिशत आवर्तक अनुदान देना प्रारम्भ किया जो 2010 ई. से बन्द कर दिया हैं। इसके अलावा विभिन्न परियोजनाओं के सम्पादन हेतु भारत सरकार राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली, राजा राम मोहनराय पुस्तकालय फाउण्डेशन कलक्ता व पर्यटन एवं संस्कृति विभाग, नई दिल्ली से अनावर्तक अनुदान समय-समय पर प्राप्त होता रहा है।
प्रतिष्ठान द्वारा सैंकड़ों प्राचीन ग्रन्थों, हजारों अभिलेखीय बहियों, पट्टों परवानों, दस्तावेजों का अनुपम संग्रह किया गया है। संगृहीत ऐतिहासिक सामग्री और स्तरीय प्रकाशन शोधकर्ताओं के लिये आकर्षण का कारण है। यहाँ देश-विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के अनेकों अनुसन्धानकर्ताओं का शोध कार्य के लिए बराबर आना-जाना होता रहता हैं। जिन्हें अनुसन्धान सामग्री एवं समुचित अन्य सुविधाएँ एवं सहयोग प्रतिष्ठान से मिलता है। परिणामस्वरूप 3500 से अधिक उच्च अनुसन्धान कार्य करने वाले शोध छात्रों द्वारा यहाँ कार्य किया जा चुका है। प्रतिष्ठान की मूल्यवान सामग्री अनुसन्धान निर्देशन सुविधाएँ एवं सहयोग आदि का उल्लेख इतिहास, साहित्य विषयक प्रकाशित अनेकों शोध प्रबन्धों और ग्रन्थों में किया गया है। समय-समय पर प्रतिष्ठान का अवलोकन एवं निरीक्षण करने वाले देश-विदेश के ख्याति प्राप्त प्राच्य विद्या विशारदों, इतिहासकारों, साहित्यकारों, जन-प्रतिनिधियों समाज सेवियों की दृष्टि में प्रतिष्ठान की उपलब्धियों का महत्त्व प्रतिष्ठापित हुआ हैं।
उद्देश्य
- राजस्थान के इतिहास, साहित्य एवं कला के अनुसन्धान आदि कार्यो को प्रोत्साहन प्रदान करना।
- राजस्थान के प्राचीन ग्रन्थों, अस्त्र-शस्त्रों, चित्रों आदि ऐतिहासिक वस्तुओं, मूर्तियों, शिलालेखा, ताम्रपत्रों, ताड़पत्रों का सग्रहालय स्थापित करना।
- राजस्थान के ऐतिहासिक महा-पुरुषों का सही मूल्यांकन कर भारतीय इतिहास में उन्हें उचित स्थान प्रदान करना।
- राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परानुकुल शौर्य-पूर्ण ओजस्वी मौलिक साहित्य का सृजन करना।
- ज्ञान की विलुप्त अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री को अनुसन्धान के द्वारा लोकोपयोगी बनाकर उसे प्रकाशित करना।
- प्रतिष्ठान की ईकाई के रूप में पुरालेखागार की स्थापना कर अभिलेखों को सुरक्षित करना।
- महाराणा प्रताप की पीठ की स्थापना कर शोध कार्य करना और प्रताप के सन्देश को जन-जन तक पहुँचाना।
उक्त उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सम्पादित किये गये कार्य
मज्झमिका शोध पत्रिका प्रकाशन
प्रताप-शोध प्रतिष्ठान की शोध पत्रिका का नाम चित्तौड़ की एक प्रचीन ऐतिहासिक नगरी के नाम से मज्झमिका रखा गया है। भारतीय इतिहास, साहित्य, कला एवं संस्कृति के नवीन तथ्यों की खोज एवं प्रचार करने हेतु शोध पत्रिका मज्झमिका का वर्ष 1967 ई. से प्रकाशन किया जाता रहा है। अधिकांशतः अंकों का प्रकाशन विशेषांक के रूप में होने से इसके सभी अंक संग्रहणीय है। स्तर की दृष्टि से तुलना किसी अन्य शोध पत्रिका से नहीं की जा सकती है क्योंकि इसमें इतिहास, राजस्थानी साहित्य, पुरालेखीय सामग्री, ऐतिहासिक बातें आदि विभिन्न विश्वविद्यालय के सन्दर्भ ग्रन्थों के रूप में स्वीकृत किये है। कुछ अंकों को विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी स्थान दिया जा चुका है। इस प्रकार विशेषांकों का क्रम जारी है। मज्झमिका के अंकों में इतिहास, संस्कृति, राजस्थानी साहित्य व लोक साहित्य की सामग्री को प्रामाणित रूप से सम्पादित किया जाता है। इनमें ऐतिहासिक सामग्री, ख्यात, बात, अनुवाद, टीका, गीत, कवित्त, दोहे आदि अनेकानेक धाराओं की विस्तृत जानकारी मिलती है। शोध पत्रिका में संस्थान में संग्रहीत ग्रन्थों के साथ ही अन्य स्थानों में संग्रहीत सामग्री का भी उपयोग किया जाता रहा है। इसके 50 अंकों का सम्पादन किया जा चुका है।
(मज्झमिका सूची संलग्न)
भूपाल नोबल्स संग्रहालय
भारतीय कला और संस्कृति को प्रोत्साहन एवं सरंक्षण प्रदान करने हेतु मेवाड़ के पूर्व जनप्रिय महाराणा भूपालसिंह के नाम से संग्रहालय की स्थापना की गई। प्रतिष्ठान द्वारा व्यापक स्तर पर अभियान चलाकर प्रदेश की पूर्व रियासतों, पूर्व ठिकानों, प्रतिष्ठात घरानों, देव,-मन्दिरों, जैन उपासरों एवं आदिवासी अचंलों में बिखरी विलुप्त होती ऐतिहासिक सामग्री को संकलित एवं सुरक्षित करने की अथक चेष्ठा करता रहा है। राजस्थान विशिष्ट राजपूत शैली के लिए विश्वविख्यात हैं। यहाँ के शारकों ने कला एवं साहित्य को प्रश्रय प्रदान कर इनकी उन्नति में विशेष योगदान प्रदान किया। कई पूर्व रियासतों में चित्रांकन की विशिष्टताओं की छाप इसी वजह से अंकित है, जिसमें बूंदी व किशनगढ़ शैली का विशिष्ट स्थान है।
संग्रहालय में सैकड़ों चित्र, इतर सामग्री का संग्रह कर प्रदर्शित कर दिया हंै। भारतीय संस्कृति का दिग्दर्शन करने के लिए लोकप्रिय नरेशों, सुप्रतिष्ठित योद्धाओं, प्रमुख स्वतन्त्रता सैनानियों, विख्यात साहित्कारों, जन प्रिय संत महात्माओं, सामाजिक परम्पराओं आदि के 300 सजीव तेल चित्रों को व्यवस्थित कलाविधि कक्षों में प्रदर्शित कर रखा है। ऐतिहासिक स्थलों, युद्धों को दर्शानें वाले वृहत्त आकार के कई चित्रों के साथ भक्त शिरोमणी मीराबाई का चित्र और महाराणा भूपालसिंह की पाषण प्रतिमाएँ भी अवलोकनीय है। ऐतिहासिक पौशाकें एवं अस्त्र- शस्त्र आदि का संग्रह हैं। उपकरणों का भी संग्रह है। पर्यटकों एवं शोधार्थियों का नियमित आवागमन एवं अनुसन्धान कार्य हेतु निःशुल्क सुविधाएँ प्रदान की जाती है जिससे संग्रहालय का विशेष आकर्षण रहा है। इस प्रकार पर्यटक नगरी उदयपुर के मध्य विविध ऐतिहासिक सामग्री से सुसज्जित एक मात्र निःशुल्क संग्रहालय जनता जनार्दन हेतु निरन्तर सेवारत है।
ग्रन्थालय
प्रतिष्ठान द्वारा अंचल का सर्वेक्षण कर विलुप्त होती इतिहास, साहित्य, संस्कृति, ज्योतिष, आयुर्वेदिक, गणित, भौगोलिक एवं आर्थिक आदि विषयों के ग्रन्थों की खोजकर उनको समूल्य अथवा भेंट में प्राप्त किया जाता रहा है। प्राप्त पाण्डूलिपियों का उचित रख-रखाव एवं मरम्मत कर ग्रंथालय में अनुसंधान हेतु उपलब्ध कराया जाता है। मुख्यतः यहाँ 16 वीं से 20 वीं शताब्दी की अनेकों दुर्लभ पाण्डूलिपियाँ सुरक्षित है। इनका विवरणात्मक सूची पत्र भाग 2 तैयार किया जा चुका है। हाल ही में पं.रविशंकर देराश्री संग्रह बनेड़ा श्रीमान् अक्षयकुमार देराश्री द्वारा प्रतिष्ठान में भेंट की गई जिसका परिरक्षण कार्य व सुचिकरण कार्य जारी है।
पुस्तकालय
प्रताप षोध प्रतिष्ठान, उदयपुर के सन्दर्भ पुस्तकालय का नाम सुप्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टाड के नाम पर ’’ टाड पुस्तकालय ’’ रखा गया है। पुस्तकालय में इतिहास, साहित्य, कला, संस्कृत, हिन्दी अंगे्रजी एवं राजस्थानी भाषा की 9541 पुस्तकों का दुर्लभ संग्रह है। ब्रिटिष काल में प्रकाषित सचित्र बड़ी पुस्तकों का दुर्लभ संग्रह है। जो अन्यत्र नहीं है। इतिहास, साहित्य एवं संस्कृति के अनुसन्धान पत्रिकाओं के सम्पूर्ण सेट सुरक्षित है। प्रतिष्ठान इनकी अभिवृद्धि हेतु निरन्तर प्रयत्नषील है। देष- विदेष के शोधार्थी इस सामग्री से लाभान्वित हुए है।
विगत 100 वर्षो में विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्रकाषित षोध पत्रिकाओं के सम्पूर्ण अंक भी सुरक्षित हैं जिनके आलेखों की सूची तैयार है। पुस्तकालय की सामग्री में अधिकांष सामग्री सौ से एक सौ पचास वर्षपुरानी हैं ओझा संग्रह में पं. गौरीषंकर हीराचन्द ओझा के निजी संग्रह की 2678 दुलर्भ पूस्तकं षोधार्थियों के लिये अति उपयोगी है। अतः इन्हें वैज्ञानिक तरीके से विधिवत् सजिल्द करवाकर उचित मरम्मत कराई गयी है तथा प्रो. धर्मपाल शर्मा के निजी संग्रह की 183 (इतिहास व साहित्य की) दुलर्भ पूस्तकंे षोधार्थियों के लिये अति उपयोगी है। हाल ही में श्रीमान् अक्षयकुमार देराश्री द्वारा पं. रविशंकर देराश्री संग्रह बनेड़ा की दुलर्भ पुस्तकों को भेंट स्वरूप प्रतिष्ठान में प्राप्त किया। स्थायी रख-रखाव के लिए 30 ग्लास-डोर स्टील अलमारियों में कीटाणु नाषक औषधियों के प्रयोग के साथ शोधार्थियों के लिए सुरक्षित किया गया है। विधिवत वैज्ञानिक तरीके से पुस्तकों के सूचीकरण का कार्य जारी हैं। अध्ययन हेतु आने वाले शोधार्थियों को बैठक व्यवस्था, जलपान, आवास, एवं टेलीफोन आदि की सुविधाएं निःशुल्क उपलब्ध कराई जाती है और शोध सामग्री के जेराक्स एवं कम्प्यूटर, माईक्रोफिल्म-रीडर, फोटोग्राफर सुविधा के साथ ही पत्राचार से भी सामग्री शोधार्थियों को भेजी जाती है।
पुरालेखागार
पूर्व राज्यों की अभिलेखीय सामग्री राष्ट्रीय, राज्य एवं उनके निजी अभिलेखागारों में सुरक्षित है, परन्तु इन राज्यों के आधार स्तंभ रहे सामन्तों, ठिकानों, घरानों, व्यवसायियों, तीर्थ स्थलों की अभिलेखीय सामग्री की ओर किसी का ध्यान नहीं गया, फलतः यह सामग्री प्रायःनष्ट होती रही है। प्रतिष्ठान ने इसे हस्तगत करने एवं सुरक्षा प्रदान करने का महत्वपूर्ण कार्य करने की प्रक्रिया प्रारम्भ की। परिणामस्वरुप 200-300 वर्ष पुराने राजस्थान एवं इसके पड़ौसी राज्यों के ठिकानों, घरानों एवं संस्थाओं से संपर्क कर महत्वपूर्ण अभिलेखीय सामग्री प्राप्त की और वैज्ञानिक तरीके से उचित रख-रखाव कर अनुसंधान के लिये उपलब्ध कराई गई है। इस पुरालेखीय सामग्री में समसामयिक राजनैतिक गतिविधियों के साथ ही आर्थिक, सामाजिक, न्यायिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक क्रिया-कलापों का प्रामाणिक दिग्दर्शन होता है। इनमें शासक, ठिकानेदार, प्रशासनिक कर्मचारी, आम जनता के संबंधों एवं कार्य रीतिनीतियों की महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इन ठिकानों, घरानों आदि के नाम से प्रतिष्ठान में पृथक-पृथक संग्रह की स्थापना कर अलग-अलग कक्षों में सुरक्षित किया जा चुका है। वर्तमान में अंतरार्रष्ट्रीय स्तर पर्र आिर्थक, सामाजिक, सांस्कृतिक इतिहास लेखन पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है जिसके लिए यह सामग्री अति महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक आधार स्त्रोत है। प्रतिष्ठान अभिलेखागार में निम्न ठिकानों एवं घरानें की सामग्री संग्रहीत हैः
1. ठिकाना भीण्डर
भीण्डर के जागीदार महाराणा प्रताप के छोटे भाई शक्तिसिंह के वंशज है जो शक्तावत कहलाते है। महाराज इनकी उपाधि एवं मेवाड़ राज्य के प्रथम श्रेणी उमराव माने जाते है। प्रतिष्ठान में भीण्डर ठिकाने की विक्रम सं0 1915 से 2007 तक की 199 बहियां सुरक्षित है।
2. ठिकाना पीपल्या संग्रह
वर्तमान में मध्यप्रदेश में स्थित पीपल्या ठिकाना मेवाड़ के द्वितीय श्रेणी में जागीदारों में है। इनके वंशज शक्तिसिंह के पुत्र राजसिंह के द्वितीय पुत्र कल्याणसिंह के वंशज है। इस ठिकाने की वि.सं. 1841 से 1999 तक की 220 बहियाँ व पट्टे-परवानें प्रतिष्ठान में सग्रहीत है।
3. ठिकाना अठाणा संग्रह
अठाणा के चूण्ड़ावत रावत सवाई मेघसिंह के नाम से प्रसिद्ध था, उसके वंशज अठाणा के जागीरदार थे। अठाणा पूर्व में मेवाड़ में था,किन्तु मराठा काल में यह सिंधिया के अधीन चला गया। वर्तमान में यह मध्यप्रदेश राज्य में है। अतः यहाँ की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक व्यवस्था मेवाड़ी एवं मालवी मिश्रित रही है। इस ठिकाने की वि. सं0 1841 से 2025 तक की 888 बहियाँ संग्रहीत है।
4. ठिकाना गोगून्दा संग्रह
गोगून्दा के सरदार झाला राजपूत है और ”राजराणा“ उनका खिताब था। यह प्रथम श्रेणी (उमराव) का ठिकाना था। 16वीं शताब्दी के प्रथम दशक में हलवद (काठियावाड़) के राजा राजसिंह के दो पुत्र अज्जा व सज्जा मेवाड़ के महाराणा रायमल के पास आये। उक्त महाराणा ने उनको जागीर प्रदान कर अपने सामन्तों में स्थान दिया। गोगून्दा उदयपुर से 35 कि.मी. उतर पश्चिम में स्थित है। इस ठिकाने की 2 बहियाँ, तवारीख और हस्तलिखित ग्रंथ में वि.सं0 1871 से 2024 तक की घटनाओं का सविस्तार वर्णन है।
5. ठिकाना विजयपुर संग्रह
विजयपुर के जागीदार बान्सी के राव नरहरदास के चैथे पुत्र विजयसिंह के वंशज है। यह द्वितीय श्रेणी के जागीदार थे। विजयसिंह का वंशधर नवलसिंह हुआ। विजयपुर के 105 पट्टे-परवाने वि. सं0 1700 से 2000 तक के प्रतिष्ठान में संग्रहीत है।
6. ठिकाना सरदारगढ़ संग्रह
यह शार्दुलगढ़ (काठियावाड़) के सिंध डोडिया के वंशज है, और ठाकुर का किताब था। महाराणा जगतसिंह (दूसरे) के समय जयसिंह के प्रपोत्र सरदारसिंह को लावे का ठिकाना मिला। उसने लावे में किला बनाकर उसका नाम सरदारगढ़ रखा।संस्थान में वि0 सं0 1938 से 2001 तक की 439 बहियाँ, 87 बस्तों में लगभग 5600 मिसलें है। जिनमें सेटलमेन्ट संबंधी दस्तावेज संग्रहीत है।
7. ठिकाना दौलतगढ़ संग्रह
यहाँ के ठिकानेदार तृतीय श्रेणी के सरदार थे। ये देवगढ़ के राव गोकुलदास (प्रथम) के चैथे पुत्र दौलतसिंह के वंशज है। यह जागीदार महाराणा अमरसिंह (द्वितीय) ने दौलतसिंह को प्रदान की थी। इस ठिकरने के 29 पट्टे-परवाने संस्थान में संग्रहीत है।
8. ठिकाना सिंगोली संग्रह
मंगरोप के स्वामी महेशदास के छोटे भाई मोहकमसिंह के वंशज (मोकमसिंहोत पुरावत) हैं और उसका खीताब “बाबा” है। महाराणा अरिसिंह (द्वितीय) ने नवलसिंह को सिंगोली की जागीर दी। यह तृतीय श्रेणी के सरदार है। इस ठिकाने की 11 बहियाँ एवं दस्तावेज टेग फाईलें 7 बस्तों में संस्थान में संग्रहीत है।
9. मथुरा के पण्डे का संग्रह
संस्थान में मथुरा के पण्डे के दस्तावेजों में ठिकाना विछि, सोवनियों का मेड़ता, उड़ेसर, हेसरी, वीरपुर, मधन, करवर, बनेड़ा, खेड़ा, नारायणपुर, बडोली, टोडो, मलोद, पोसरियों, कोट, जाजपुरो, कल्याणपुरा, टोडरी, नपुर, रभखेडी, बॉकानेर, बरसोढ़ो, देवगढ़, एमा, गवोती, पीथापुर, बड़गॉव, खडार, वातम, वपनापर, ताबेतरा, खंडयारी, धोलखा, वनेरिया, भदोरा, वानेर, खेड़ी, दयावास, कुथवास, कलोली, वलाण्या, धरोल, कचनासी, जाजपुर, पगारा, बोरदा, टांटिया, जोगरा, नींबोरो, परावल, टोडरी, आमेट, वगड़ी, कोशीथल, खेमाणा, सावर, बीनोता आदि के 2117 पट्टे-परवानें, दस्तावेज वि0सं0 1600 से 2000 तक के संग्रहीत हैं। ये धार्मिक क्रिया कर्मो के साथ ही इतिहास की टूटी हुई कड़ियों के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज माने जा सकते है।
10. ठिकाना बेदला संग्रह
यह ठिकाना उदयपुर से दो मील उत्तर में अरावली पहाड़ के नजदीक स्थित है। बेदला ठिकाना मेवाड़ के प्रथम श्रेणी के (उमराव) का है। बेदले के सरदार दिल्ली के चैहान राजा पृथ्वीराज तृतीय के वंशज है। बेदला ठिकाने की संस्थान में 211 बहियाँ व पट्टे-परवाने सग्रहीत है।
11. ठिकाना मोही संग्रह
जैसलमेर के रावल मनोहरदास की पुत्री से महाराणा राजसिंह का विवाह हुआ। इसी संबंध के कारण मनोहर दास के पौत्र सबलसिंह का एक पुत्र महासिंह मेवाड़ आया और उसको मोही की जागीर मिली। इस ठिकाने के वि0सं0 1919 से 2023 तक की बहीयाँ संस्थान में संग्रहीत है।
12. ठिकाना कोशीथल संग्रह
कोशीथल भीलवाड़ा जिले की सहाड़ा तहसील में गंगापुर कस्बे से 16 की0मी0 उत्तर में स्थित है। महाराणा जगतसिंह प्रथ्म ने आमेट के राव करणसिंह के ज्येष्ठ पुत्र नरहरदास को वि0सं0 1705 में कोशीथल की जागीर प्रदान की। संस्थान में 122 बहियाँ, 1 ग्रंथ तथा 425 पट्टे-परवाने वि0सं0 1812 से 2016 तक के संग्रहीत है।
13. ठिकाना बागोर संग्रह
बागोर के जागीरदार महाराणा सग्रामसिंह (द्वितीय) के दूसरे कुँवरनाथसिंह के वंशज हैं। और महाराज उनकी उपाधी थी। बागोर से मेवाड़ के चार महाराणा क्रमशः सरदारसिंह, स्वरूपसिंह, शंभुसिंह, सज्जनसिंह गोद आये। यह प्रथम श्रेणी का ठिकाना था। इस ठिकाने से वि0सं0 1730 से 2006 तक के 115 पत्र संस्थान में संग्रहीत है।
14. ठिकाना केलवा संग्रह
मारवाड़ के राव सलखा के द्वितीय पुत्र जैतमाल के वंशज राठौड़ बीदा के वंशधर है। रायमल के पुत्रों में हुए आपसी संघर्ष में बींदा ने कुँवर सांगा का साथ दिया था। उसके बाद से उसके वंषधर मेवाड़ के षासकों की सेवा में रहे। केलवा से प्रतिष्ठान को विभिन्न धार्मिक ग्रंथ और साहित्यिक ग्रंथ प्राप्त हुए जो तत्कालीन धर्म, समाज की व्यस्था के लिए उपयोगी हैं।
15. ठिकाना भूणास संग्रह
भूणास के सरदार महाराणा राजसिंह के आठवें पुत्र बहादुरसिंह के वंषज है और “महाराज” (बाबा) इनकी उपधि है। यह द्वितीय श्रेणी के सरदार थे। भूणास के 53 पट्टे-परवाने, बहियाँ तथा पत्र वि0सं. 1880 से 2009 तक के संस्थान में संग्रहीत है।
16. ठिकाना कारोई संग्रह
महाराणा जयसिंह के तीसरे पुत्र उम्मेदसिंह के वंषज है। इस ठिकाने की प्रतिष्ठान में वि0सं0 1838 से 1946 तक की 75 बहियाँ एवं 15 दस्तावेज संग्रहीत है।
17. ठिकाना लसाणी संग्रह
हाल ही में ठिाकाना लसाणी संग्रह की अभिलेखिय साम्रगी प्रतिष्ठान अभिलेखागार हेतु भेंट स्वरूप प्राप्त हुई है। उसका परिरक्षण कार्य जारी है।
उपरोक्त सामग्री का विवरणात्मक सूची पत्र तैयार करने की परियोजना सम्पादित की जा रही है। जिसमें कुछेक ठिकानों का सूचीकरण किया जा चुका है। आगे के लिए कार्य जारी है। सूचीकरण का कार्य पूर्ण होने पर अनुसंधानकर्ताओं को षोध सामग्री चयन में सुविधा रहेगी।
जेराक्स सामग्री
प्रतिष्ठान के पास स्वयं की जेराक्स मषीन है जो अनुसंधानकर्ताओं को उनके विषय की षोध सामग्री उपलब्ध कराने में सहयोगी है। प्रतिष्ठान अधिकारियों द्वारा विलुप्त होते रिकार्ड की खोज पाण्डुलिपियों एवं एंतिहासिक सामग्री का क्रय करना एवं सर्वेक्षण का मुख्य कार्य किया जाता है। आम तौर पर षोधार्थियों को उनके विषय की सामग्री का पता लगाना कठिन होता है तथा उन ठिकानों एवं धरानों से सामग्री उपयोग हेतु स्वीकृति और कठिन कार्य होता हैं। विभिन्न ठिकानों, घरानों, व्यक्तियों एवं संस्थाओं द्वारा सामग्री प्रतिष्ठान में भेंट अथवा क्रय पर न देने पर ऐसी स्थिति में सामग्री को जेराक्स कराकर जेराक्स प्रति को प्रतिष्ठान में सुरक्षित किया जाता है। इससे दोहरा लाभ होता है। एक ओर तो मूल सामग्री को उपयोग से नष्ट होने से बचायी जा सकती है और दूसरा स्पष्ट प्रति षोधार्थियों को उपलब्ध हो जाती है। पुरानी एवं जर्जर पाण्डुलिपियाँ एवं पुरानी पुस्तकों की भी जेराक्स प्रति करवाकर पुस्तकालय में अध्ययन हेतु सुलभ कराया जाता है। इसमें अनेक पाण्डुलिपियों, बहियों, पट्टे-परवानें की जेराक्स प्रति भी सुरक्षित है। इनमें जागीर की पट्टा बहियाँ विषेष महत्व रखती हैं।
जेराक्स सामग्री हेतु पूर्व ठिकानों, घरानों, ठोकरा के बड़वों, भाटों, राणीमंगों, विविध संस्थाओं, महत्वपूर्ण व्यक्तियों से सम्पर्क कर ऐतिहासिक सामग्री का जेराक्स करवाया गया। इसमें निम्नलिखित महत्वपूर्ण ग्रंथों की जेराक्स सामग्री सुरक्षित है। जमीन अर करसों की विगत, पट्टा बही, ठिकाना भीण्ड़र के पट्टे-परवानें, बाजार तथा परचुनी लेखा की चैपनियों, बनेड़ा, राधोगढ़, और मारवाड़ के रुक्के, पट्टे, परवाने, पट्टा बही, ठिकाना गोगून्दा की तवारीख, तवारीख ठिकाना पारसोली, ठिकाना बेंगू री तवारीख, ठिकाना बाँन्सी री तवारीख, तारीखे कानोड़, पड़ाखा 1919, पट्टा बही ठिकाना गोगून्दा, राजसिंह(प्रथम) की पट्टा बही, राजसिंह(द्वितीय) की पट्टा बही, ताँबा पत्र बहीड़ो, देवस्थान की बही 1917, खरीता महाराणा श्री स्वरूप सिंह जी 1900 से 1926, महाराणा स्वरूप सिंह जी की बही 1905, चित्तोड़ उदयपुर पाटनामा, महाराणा राज सिंह की परगना बही, सगत रासो, महाराणा भीम री वार री पट्टा बही (दो भाग), सरदारो री हालपैदास री विगत 1907, महाराणा भीमसिंह रीवार पट्टाबही, सरदारा री साख रो नामों, सूरज वंष, राज-प्रकाष, वंषावली राणा जी री-1, वंषावली राणा जी री-2, राणा जी री वंषावली-3, वंषावली राणा जी री-5, सीसोद वंषावली-6, वातसंग्रह, जागीरदाराँ रे गॅव-पट्टों राह मरजाद री हकीकत् 1877, सावर के षक्तावतों की वंषावली, हिस्ट्री आफ मेवाड़, रावल राणा जी री वात, राज विलास, रामपुरा का गौरवषाली इतिहास, ऐतिहासिक बाँता परम्परा, सही वाला अर्जुनसिंह जीवन चरित्र गजेटर आफ मेवाड़, ष्षक्तावता री विगत, ठिकाना भीण्डर, मथुरा के पण्ड़े के पत्र, ष्यामलदास संग्रह के मेवाड़ ठिकानों की सामग्री आदि।
शोध निर्देशन
प्रताप षोध प्रतिष्ठान, उदयपुर के निदेषक के निर्देषन में शोधार्थी अनुसन्धान कार्य कर रहे है। निदेशक डा. मोहब्बतसिंह राठौड़ को शोध निर्देशक के रूप में मोहनलाल सुखाडीया विश्वविद्यालय उदयपुर, राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय उदयपुर व भूपाल नोब्लस विश्वविद्यालय उदयपुर ने मान्यता प्रदान कर रखी है। प्रतिष्ठान अभिलेखागार, ग्रन्थालय, संग्रहालय की सामग्री का उपयोग करने एवं अनुसंधान मार्गदर्षन हेतु देष-विदेष के विष्वविद्यालयों में अनुसंधान का कार्य करने वाले 4000 विधाथर्यों को पत्राचार व व्यक्तिगत सम्पर्क से शोध सामग्री उपलब्ध करायी जाती रही हैं तथा निर्देषन दिया जाता रहा है। इस प्रकार प्रतिष्ठान ने अनुसंधान सामग्री का राष्ट्रीय एवं अन्र्तराष्ट्रीय स्तर के विभिन्न विष्वपिद्यालयों में इतिहास, कला, साहित्य एवं संस्कृति पर कार्य करने वाले शोधार्थियों को शोध सामग्री एवं मार्गदर्षन प्रदान किया हैं।
गोष्टियों एवं जयंतियों का आयोजन
महापुरुषों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को आंकने तथा नई पीढ़ी को प्रेरणा प्रदान करने हेतु इतिहासकारों, साहित्यकारों, स्वतंत्रता सैनानियों संत महात्माओं, योद्धाओं, महापुरुषों पर गोष्ठियों और जयन्तियों का आयोजन किया जाता रहा है। इसके अतिरिक्त अनुसंधान विषयक विचार-विमर्श एवं नये तथ्यों की खोज हेतु राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठियाँ आयोजित की जाती रही है, राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित अन्यत्र संगोष्ठियों में यहाँ के अधिकारियों ने भाग लेकर अनुसंधान विषयक शोध आलेख प्रस्तुत किये जिनका महत्त्वपूर्ण शोध पत्रिकाओं में प्रकाशन होता रहा है।
केन्द्रीय सहायता से प्रताप शोध प्रतिष्ठान द्वारा सम्पादित अनुसन्धान परियोजनाऐं:-
प्रतिष्ठान के अनुसन्धान स्तर का मुल्यांकन करते हुए केन्द्र सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा प्रतिष्ठान को भिन्न-भिन्न ऐतिहासिक कार्यो के सम्पादन का कार्य सौंपा।
(अ) राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली से प्राप्त अनुदान:-
क्र.सं. |
विवरण |
स्वीकृति वर्ष |
राशि |
|
पाण्डुलिपि परिक्षण, क्रय, जेराक्स |
|
|
1 |
सूचीकरण व सम्पादन। |
1992 |
100000 |
2 |
पाण्डुलिपि परिरक्षण और क्रय बाबत्। |
1994 |
50000 |
3 |
पाण्डुलिपि प्ररिरक्षण एवं अलमारियाँ क्रय बाबत्। |
1995 |
40000 |
|
पण्डुलिपि प्रकाशन (चैहान प्रकाश) |
1999 |
79500 |
4 |
पाण्डुलिपि प्रकाशन, सूचीकरण, स्टील अलमारी रेक्स क्रय |
2004 |
133334 |
5 |
स्टील अलमारी क्रय, सूचीकरण, बाईंडिंग |
2006 |
175000 |
(ब) भारतीय अनुसन्धान परिषद, नई दिल्ली से प्राप्त अनुदान:-
क्र.सं. |
विवरण |
स्वीकृति वर्ष |
राशि |
1 |
महाराणा राजसिंह की पट्टा एवं परगना बहीं के सम्पादन हेतु |
1998 |
41996 |
2 |
राजस्थानी एतिहासिक ग्रंथो का सर्वेक्षण |
1990 |
23750 |
3 |
मेवाड़ के एतिहासिक पट्टे-परवाने, ठिकाना विजयपुर |
1993 |
10000 |
4 |
राजस्थान इतिहास के स्त्रोत पर संगोष्ठी |
1995 |
9500 |
5 |
मज्झमिका, मेवाड़ जागीरदाराँ री विगत पर प्रकाषन हेतु। |
1995 |
5000 |
6 |
मेवाड़ जागीरदाराँ री गाँव पट्टा राह मरजाद ही हकीकत बही के प्रकाशन हेतु |
1969 |
12000 |
7 |
दक्षिणी राजस्थान के स्वतन्त्रता सैनानियों पर संगोष्ठी हेतु |
2000 |
20000 |
8 |
राजस्थान की संस्कृति एवं परम्परा |
2003 |
25000 |
9 |
स्वतंत्रता पूर्व दक्षिणी राजस्थान में पर्यावरण नीति एवं स्थिति |
2009 |
50000 |
10 |
तांबा पत्र की बही (1838ई.) का सम्पादन |
2009 |
60000 |
(स) पर्यटन कला व संस्कृति विभाग, नई दिल्ली:-
क्र.सं. |
विवरण |
स्वीकृति वर्ष |
राशि |
1 |
1.अलमारियाँ क्रय 2. टेबल कुर्सीयां क्रय 3. वाटर कुलर व |
2003 |
160000 |
|
एक्जास फेन क्रय 4. पाण्डुलिपियां क्रय, प्रकाशित पुस्तकें (मिनिस्ट्री आफ टूरिज्म एण्ड कल्चर, नई दिल्ली |
|
प्रलेखन (फोटो, ऐतिहासिक विवरण, स्केनिंग, ब्रोशर महाराणा प्रताप |
2 |
इन लाईफ लाईक पिक्टोरियल्स) (मिनिस्ट्री आॅफ टूरिज्म एण्ड कल्चर, नई दिल्ली) |
2007 |
207200 |
द) राजा राम मोहनराय फाउण्डेशन, कलकत्ता
क्र.सं. |
विवरण |
स्वीकृति वर्ष |
राशि |
1 |
पुस्तकालय भवन निर्माण (राजा राम मोहन राय पुस्तकालय फाउण्डेशन कलकत्ता) |
2003 |
379468 |
"प्रतिष्ठान के प्रकाशन"
मुख्यतः प्रतिष्ठान द्वारा ऐतिहासिक, साहित्य की कृतियों का सम्पादन एवं प्रकाषन का कार्य किया जाता हैं। ये प्रकाषन मूल ऐतिहासिक सामग्री को उजागर करने में उपयोगी सिद्ध हुए हैं। प्रतिष्ठान से अब संलग्न सूची अनुसार प्रकाशन प्रकाशित किये जा चुके है।
प्रताप शोध प्रतिष्ठान
निदेशक (1986 से 2012 तक)
क्र.सं. |
नाम |
वर्ष |
1 |
डा. हुकुमसिंह भाटी |
30.5.1986 से 25.3.1997 |
2 |
श्री धर्मपाल षर्मा |
16.12.1997 से 7.10.1998 |
3 |
डा. मीना गौड़ (मानद) |
7.10.1998 से 1.5.1999 |
4 |
डा. मनोहरसिंह राणावत (मानद) |
1.5.1999 से 31.12.2005 |
5 |
श्री धर्मपाल शर्मा |
17.12.2005 से 1.9.2009 |
6 |
डा. ईष्वरसिंह राणावत (कार्यवाहक) |
1.9.2009 से 17.4.2011 |
7 |
श्री धर्मपाल शर्मा |
18.4.2011 से 31.5.2011 |
8 |
डा. ईश्वरसिंह राणावत (कार्यवाहक) |
1.6.2011 से 8.8.2011 |
9 |
डा. मोहब्बतसिंह राठौड़ (कार्यवाहक) |
9.8.2011 से - |